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बलौट
(लघु-उप यास)

अनवर सुहैल

बलौट
अनवर सुहैल
लघु-उप यास

© अनवर सुहैल
थम सं करण : २०१४

संपक
अनवर सुहैल
टाइप ४/३ आ फसर कालोनी
पो. बजुर

जला अनुपपुर म.

४८४४४० मो. ९९०७९७८१०८
sanketpatrika@gmail.com

.

बलौट

बलौट ठे केदा रन साइ कल से उतर । साइ कल टड पर लगा,
सीधे परसाद पान गुमट पर आई। परसाद का गितशील हाथ
ण भर का ठठका। गुमट के सामने खड़े अ य लोग का
यान बंटा।
रामभरोसे हं द ू होटल, धरम ढाबा, ममद ू नाई क गुमट और

बस- टड के आस-पास बखरे लोग सजग हए।
ु परसाद ने पान
का बीड़ा बलौट क तरफ बढ़ाया। बलौट पान लेकर बड़

नफ़ासत से उसे एक गाल के सुपुद कया और खुली हथेली


परसाद क तरफ बढ़ा द । परसाद ने अख़बार के टकड़े
पर साद
प ी, तीन सौ च सठ, चमन बहार और सुपार के चंद क़तरे

ू डं ड म
रखकर बलौट क तरफ पेश कया। पान क एक टट
चूना िचपका कर आगे बढ़ाया। बलौट ने बड़े इ मीनान से
तंबाकू-ज़दा फांक कर चूना चाटते हए
ु एक

पए का िस का

गुमट म बछे लाल कपड़े पर उछाला। फर सधे क़दम से
साइ कल क तरफ़ बढ़ गई।
बलौट के पैर म जूता-मोजा था। सलीके से बंधी लाल-गुलाबी
साड़ म उसक गहआ
ु रं गत खल रह थी। साड़ और लाउज़

के बीच से झांकता उसका पेट और पीठ का ह से पर लोग क
आंख िचपक गई थीं। साइ कल के कै रयर म एक र ज टर
और एक डायर फंसी थी। उसक भूर आंख के जाद ू और मदमार अदाओं से बस- टड का वातावरण ित दन इसी तरह
मं - ब

होता है ।

महा बंधकर कायालय क तरफ जाने वाली मु य सड़क पर
जब वह साइ कल का पैडल मारती सर से चली गई, तो
तमाशबीन बलौट के स मोहनी भाव से आज़ाद हए।
ु सहज

हए
र, सहज हए
ु लोग, सहज हए
ु दकानदा

ु खर ददार, सहज हए


या ीगण और सहज हए
ु बलौट के भूत, भ व य और वतमान
जानने का दावा ठ कने वाले जानकार!
यहां तक क उसके य

व से अंजान लोग के दलो- दमाग

म काफ दे र तक सनसनाती रह बलौट ...
कतना भी बखान कया जाए, बलौट के वल ण य
का सम



वणन कसी एक क जु़बान से होना अस भव है । हर

बार कुछ नया जुड़ जाता, कुछ पुराना छूट जाता। नए लोग,
पुरान से खोदा-खाद करते-’’कौन है रे ब पा, कौन है ई
आफ़त!’’


पुराने टकड़
म बताते बलौट -पुराण....


कई टकड़
-चीथड़ को इक ठा कर गुदड़ बनाने का स इस
दौर के

ोताओं म अब कहां दखता है ? वह भी ऐसे समय म,

जब ट वी, िसनेमा वाले क सा-कहािनय को नज़रअंदाज़ कर
मनोरं जन परोस रहे ह। नतीजतन बलौट एक अबूझ पहे ली

बनी रहती। जब भी वह मद के संसार म वेश करती,
अनिगनत

, ज ासाओं, दं तकथाओं के बीज छ ंट कर फुर

हो जाती।
कौन जानता था क पगिलया ससुर क बउड़ह ब टया
बलौट बड़ होकर इतनी तेज-तरार िनकल जाएगी। कोयले क
झौड़ (टोकर ) िसर पर ढोते-ढोते इतनी तर क कर जाएगी क
एक दन ‘लेबर-स लायर’ बन जाएगी।
‘ठ केदा रन कहते ह उसे मज़दरू-रे ज़ा, नेता-परे ता।

ठाठ तो दे खए....ठाड़े -ठाड़े ग रयाती है लेबर , अफसर और
मउगे नेताओं को।
नेता, अफसर, ठे केदार के बीच उठती-बैठती और या जाने
दा -मुगा भी खींचती है ।
ओंठकटवा ितवार राज़दाराना अंदाज़ म बताता-’’रे ब पा,
ख टया म खुद ‘मरद’ बन जावै है िछनाल! अ छे -अ छे
पहलवान क हवा िनकाल दे वे है । एह कारन तुलसी बाबा
आगाह कर दए ह क ढोर, गंवार, सू , पसु-नार , ई सब ताड़न
के अिधकार । इन सबसे बच सकौ तो बच के रहौ। ले कन
ओह मूड़ै मां चढ़ाए ह ससुरे ठ केदार, मुंशी और कोिलयर के
अिधकार । तब काहे न छानी पे चढ़के मूते ई
बलौ टया....जानत हौ भइया, एक गो ब टया है ओखर, का
जाने ‘सुरस ती’ क का नाम र खस है । ‘सुरस ी’ ससुर
अंगरे जी कूल म पढ़े जावै है ।’’



लोग तो बस याद करते ह पगिलया को। बलौट क मां
पगिलया।
पगिलया क बेशम
ु ार गािलयां बस- टड पर अनवर गूंजा
करतीं। वह हवा म गािलयां बका करती। टड के पास बने
पो ट-आ फस के लाल-ड बे म लोग िच ठयां डालने आते तो
उसक गािलय का िशकार बन जाते। पगिलया को भरम रहता
क िच ◌्ठ डालने के बहाने लोग उसको और उसक ब टया
बलौट को ताकते ह। इसीिलए वह अंधा-धुंध गािलया बकती।
लोग हं सते। बलौट ठ केदा रन, श

नगर-वाराणसी हाईवे के

कनारे बस- टड के ‘ टन-शेड’ पर सािधकार क ज़ा जमाकर
गुजर-बसर करने वाली पगिलया क कोख-जाई थी। गर बी,
अभाव, बद क मती और ज़माने क बेरहम ठोकर खा-खाकर
पगिलया का ज म जजर हो गया था। उसक रं गत झुलस
चुक थी। कहते ह क पगिलया जब आई थी ठ क-ठाक दखाई
दे ती थी। ओंठकटवा ितवार ठ कै कहता-’’अरे भइया, जवानी
म तो गद हया भी सुंदर दखाई दे वै है ।’’
यह तो अ छा ह हआ
क पगिलया को बलौट के बाद और


ब चे न हए।
बलौट का ज म भी साधारण प र थितय म


नह ं हआ
ु था। तब पगिलया का डे रा बस- टड का टन-शेड नह ं
हआ
ु करता था।

चौदह-पं ह बरस पहले यहां पर कहां कुछ था।

उ र- दे श के िमजर◌़
् ◌ापुर ज़ले का आ खर कोना। जहां
कोयले क खदान खुलने वाली थी। वारा सी से रे नूसागर

बजली कारखाने तक काम-चलाऊ सड़क बन रह थी। तब


नगर आने के िलए िसंगरौली से रा ता था या फर औड

मोड़ से पहाड़ क क जड़ पकड़ कर पैदल चलने से परासी,
बीना, ख ड़या, कोटा पहंु चा जाता था।

कहते ह वाराणसी से रे नूसागर तक पगिलया बस से आई थी।
बस- टड पर बस खाली हो जाती।
उस दन सब सवा रयां उतर ग और पगिलया न उतर तो
कंड टर उसके पास गया।
कंड टर को उस पर पहले से ह शक था।

कराया न अदा क

होती तो वह उसे लाता भी नह ं। पगिलया पछली सीट पर
िसकुड़ -िसमट बैठ हई
ु थी। गठर थी एक उसके पास, जसे
बड़े जतन से गोद म रखे हए
ु थी। कंड टर कई तरह क

नैितक-अनैितक स भावनाओं क क पना करता उसक बगल
म जा बैठा। बस म और कोई न था। चालक अपना झोलासामान लेकर जा चुका था। रात के यारह बज रहे थे।
सवा रयां अपने गंत य तक पहंु चने क हड़बड़ म थीं। बसटड के प

म म एक ढाबा था। ढाबे का मािलक जीवन इस

बस का इं तज़ार करके दकान
बढ़ाता था। ठं ड अपना असर जमा

चुक थी। जीवन भ ट क आग ताप रहा था। कंड टर और

जीवन का पुराना याराना था। कंड टर अ सर बनारस से अ ापउवा ले आया करता और गमागम पराठे , आमलेट और बैगन-

आलू के भरते के साथ दोन साथ-साथ खाना खाते। जीवन
सोच रहा था क कंड टर शायद दसा-मैदान गया होगा।
ले कन कंड टर के सामने तो एक दसर
थाली परोसी हई

ु थी।
माले-मु त, दले-बेरहम... वह अकेले ह उस भोजन का वाद
चखना चाहता था।
पगिलया क दे ह से अजीब दगध
फूट रह थी।


बस क नौकर , अधजले धन क गंध, िसगरे ट-बीड़ -अगरब ी
क िमली-जुली गंध और दन भर क थकान से वह परे शान था
क तु पगिलया क बीस-बाईस साल क युवा दे ह क दगध



एक और आ दम गंध शािमल थी।

कंड टर तड़प उठा। पूछा तो पगली मु कुराई। कुछ न बोली।
नाम-गांव, रे नूसागर म कसी सगे-स बंधी या अ य कोई भी
जानकार न दे कर वह बस इ ी सी मु कुरा दे ती। कंड टर
उसका हाथ पकड़कर उतारने का उप म करने लगा। दगधयु


दे ह क मादक गमाहट से वह बौखला सा गया। उसक बगल म
बैठ चुपचाप उसे बांह म घेर लेना चाहा। पगिलया आंख झपका
कर कुनमुनाई। उसम इं कार क आहट थी न इकरार क ।

ु , खड़क के रा ते
बस के अंदर चांदनी रात के चांद नुमा टकड़े


बखरे पड़े थे। ऐसा ह एक म म-दमकता सा टकड़ा
पगली के

चेहरे पर कुदरती गहने के प म आ सजा था। पगली क दे हगंध या तो गायब हो गई थी, या फर कंड टर के कोिशश को
वह सहजता वीकार कर रह थी। कंड टर इस अ त
ु यथाथ
को ई र का दया वरदान समझकर साद व प

हण करना

चाह रहा था। कंड टर अधीर होकर उसक दे ह का रसपान
करने लगा। अचानक उसे लगा क पगिलया कुछ बोली है ।
कंड टर चैत य हआ।
वह भूखी थी। कंड टर ने सोचा भगवान

का साद है , बांट कर खाया जाए तो और अ छा।

कंड टर अलग हटा तो पगली खुश दखाई द । कंड टर क
जांघ म िचकोट काट कर हं सी। कंड टर पगली के इस खुशी
ज़ा हर करने के तर के पर सौ जान कु़रबान हआ।
उसक

छाितयां नापता वह नीचे उतर गया।

जीवन, ढाबे का मािलक, बहार के िसवान जले का िनवासी था
और इस बयाबान म बना प रवार के रहता था। उसने जब
कंड टर क बात सुनी तो वह काफ खुश हआ।
तय हआ



पगिलया के संग बस के अंदर ह ‘जुगाड- फट’ कया जाए।

उधर पता नह ं पगली को या सूझी क दबे पांव, पोटली कांख
म दबाए बस से उतर और बस के पीछे अंिधयारे का लाभ
उठाकर उस सड़क पर चल द , जसके बारे म वह िनतांत
अनिभ

थी। उसे नह ं मालूम था क सड़क कहां जाती है ?

सड़क वैसे भी कह ं आती-जाती नह ं, जाते तो मुसा फर ह ह,
क तु उसे यह भी तो मालूम न था क वयं उसे कहां जाना
है ।
आधी रात!
वह भी जाड़े के शु आती दौर क रात!
औड़ मोड़ का यह इलाका अ य जगह से कुछ यादा ह
ठं डाता है ।






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